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कविता

उद्धव-शतक

जगन्नाथदास ‘रत्नाकर’

अनुक्रम 2. श्री उद्धव द्वारा मथुरा से ब्रज गमन के कवित्त पीछे     आगे

१.

न्हात जमुना मैं जलजात एक दैख्यौ जात

जाको अध-ऊरध अधिक मुरझायौ है।

कहै रतनाकर उमहि गहि स्याम ताहि

बास-बासना सों नैंकु नासिका लगायो है॥

त्यौं हीं कछु घूमि झूमि बेसुध भये कै हाय

पाय परे उखरि उभाय मुख छायौ है।

पाए घरी द्वैक मैं जगाइ ल्याइ ऊधौ तीर

राधा-नाम कीर जब औचक सुनायौ है॥

२.

आए भुजबंध दये ऊधव सखा कैं कंध

डग-मग पाय मग धरत धराये हैं।

कहै रतनाकर न बूझैं कछु बोलत औ,

खोलत न नैन हूँ अचैन चित छाए हैं॥

पाइ बहै कंच मैं सुगंध राधिका को मंजु

ध्याए कदली-बन मतंग लौ मताये हैं।

कान्ह गये जमुना नहान पै नए सिर सौं

नीकै तहाँ नेह की नदी मैं न्हाइ आए हैं॥

३.

देखि दूरि ही तैं दौरि पौरि लगि भेंटि ल्याइ,

आसन दै साँसनि समेटि सकुचानि तैं।

कहै रतनाकर यौं गुनन गुबिंद लागे,

जौलौं कछू भूले से भ्रमे से अकुलानि तैं॥

कहा कहैं ऊधौ सौं कहैं हूँ तो कहाँ लौं कहैं,

कैसे कहैं कहैं पुनि कौन सी उठानि तैं।

तौलौं अधिकाई तै उमगि कंठ आइ भिंचि,

नीर ह्वै बहन लागी बात अँखियानि तैं॥

४.

विरह-बिथा की कथा अकथ अथाह महा,

कहत बनै न जो प्रबीन सुकबीनि सौं।

कहैं रतनाकर बुझावन लगे ज्यौं कान्ह,

ऊधौ कौं कहन-हेतु ब्रज-जुवतीनि सौं॥

गहबरि आयौ गरौ भभरि अचानक त्यौं,

प्रेम परयौ चपल चुचाइ पुतरीनि सौं।

नैंकु कही बैननि, अनेक कही नैननि सौं,

रही-सही सोऊ कहि दीनी हिचकीनि सौं॥

५.

नंद और जसोमति के प्रेम पगे पालन की,

लाड़-भरे लालन की लालच लगावती।

कहै रतनाकर सुधाकर-प्रभा सौं मढ़ी,

मंजु मृगुनैनिन के गुन-गन गावती॥

जमुना कछारनि की रंग-रस-रारनि की,

बिपिन-बिहारनि की हौंस हुमसावती।

सुधि ब्रज-बासिनी दिवैया सुख-रासिनी की,

ऊधौ नित हमकौं बुलावन कौं आवती॥

६.

चलत न चारयौ भाँति कोटिनि बिचारयौ तऊ,

दाबि दाबि हारयौ पै न टारयौ टसकत है।

परम गहीली बसुदेव-देवकी की मिली,

चाह-चिमटी हूँ सौं न खैंचौं खसकत है॥

कढ़त न काढ़्यौ हाय बिथके उपाय सबै,

धीर-आक-छीर हूँ न धारैं धसकत है।

ऊधौ ब्रज-बास के बिलासनि कौ ध्यान धँस्यौ,

निसि-दिन काटैं लौं करेजौं कसकत है॥

७.

रूप-रस पीवत अघात ना हुते जो तब,

सोई अब आँस ह्वै उबरि गिरिबौ करैं।

कहै रतनाकर जुड़ात हुते देखैं जिन्हैं,

याद किएँ तिनकौं अँवाँ सौं घिरिबौ करैं॥

दिननि के फेर सौं भयो है हेर-फेर ऐसौ,

जाकौं हेरि-फेरि हेरिबौई हिरिबौ करैं।

फिरति हुते हु जिन कुंजन में आठौं जाम,

नैननि मैं अब सोई कुंज फिरिबौ करैं॥

८.

गोकुल की गैल-गैल गोप ग्वालिन कौ,

गोरस के काज लाज-बस कै बहाइबौ।

कहैं रतनाकर रिझाइबो नवेलिनि कौं,

गाइबौ गवाइबौ औ नाचिबौ नचाइबौ॥

कीबौं स्रमहार मनुहार कै बिबिध बिधि,

मोहिनी मृदुल मंजु बाँसुरी बजाइबौ।

ऊधौ सुख-संपति-समाज ब्रज-मंडल के,

भूलैं हूँ न भूलै, भूलैं हमकौं भुलाइबौ॥

९.

मोर के पखौवनि को मुकुट छबीलौ छोरि,

क्रीट मनि-मंडित घराइ करिहैं कहा।

कहै रतनाकर त्यौं माखन सनेही बिनु,

षट-रस व्यंजन चबाइ करिहैं कहा॥

गोपी ग्वाल बालनि कौं झोंकि बिरहानल मैं,

हरि सुर बृंद की बलाइ करिहैं कहा।

प्यारौ नाम गोबिंद गुपाल कौ बिहाइ हाय,

ठाकुर त्रिलोक के कहाइ करिहैं कहा॥

१०.

कहत गुपाल माल मंजु मनि पुंजनि की,

गुंजनि की माला की मिसाल छवि छावै ना।

कहै रतनाकर रतन मैं किरीट अच्छ,

मोर-पच्छ-अच्छ-लच्छ असहू सु-भावै ना॥

जसुमति मैया की मलैया अरु माखन कौ,

कामधेनु गोरस हूँ गूढ़ गुन पावै ना।

गोकुल की रज के कनूका औं तिनूका सम,

संपति त्रिलोक की बिलोकन मैं आवै ना॥

११.

राधा मुख-मंजुल सुधाकर के ध्यान ही सौं,

प्रेम रतनाकर हियैं यौं उमगत है।

त्यौं हीं बिरहातप प्रचंड सौं उमंडि अति,

उरध उसास कौ झकोर यौं जगत है॥

केवट विचार कौ बिचारौं पचि हारि जात,

होत गुन-पाल ततकाल नभ-गत है।

करत गँभीर धीर लंगर न काज कछू,

मन कौ जहाज डगि डूबन लगत है॥

१२.

सील सनी सुरुचि सु बात चलै पूरब को,

औरे ओप उमगी दृगनि मिदुराने तैं।

कहै रतनाकर अचानक चमक उठी,

उर घनश्याम कैं अधीर अकुलाने तैं॥

आसाछन्न दुरदिन दीस्यौ सुरपुर मोहिं,

ब्रज मैं सुदिन बारि बूँद हरियाने तैं,

नीर कौ प्रवाह कान्ह नैननि कैं तीर बह्यौ,

धीर बह्यौ ऊधौ उर अचल रसाने तैं॥

१३.

प्रेम-भरी कातरता कान्ह की प्रगट होत,

ऊधव अवाइ रहे ज्ञान-ध्यान सरके।

कहै रतनाकर धरा कौं धीर धूरि भयौ,

भूरि भीति भारनि फनिंद-फन करके॥

सुर सुर-राज सुद्ध-स्वारथ-सुभाव सने,

संसय समाये धाये धाम विधि हर के।

आइ फिरि ओप ठाम-ठाम ब्रज-गामनि के,

बिरहिनि बामनि के बाम अंग फरके॥

१४.

हेत खेत माँहि खोदि खाईं सुद्ध स्वारथ की,

प्रेम-तृन गोपिं राख्यौ तापै गमनौ नहीं।

करनी प्रतीति-काज करनी बनावट की,

राखी ताति हेरि हियँ हौंसनि सनौ नहीं॥

घात में लगे हैं ये बिसासी ब्रजवासी सबै,

इनके अनोखै छल-छंदनि छनौ नहीं।

बारनि कितेक तुम्हें बारन कितेक करैं,

बारन-उबारन ह्वै बारन बनौ नहीं॥

१५.

पाँचौ तत्व माहिं एक तत्व ही की सत्ता सत्य,

याही तत्त्व-ज्ञान कौ महत्व स्रुति गायौ है।

तुम तौ बिबेक रतनाकर कहौ क्यों पुनि,

भेद पंचभौतिक के रूप में रचायौ है॥

गोपिनि मैं, आप मैं बियोग औ' संजोग हूँ मैं,

एकै भाव चाहिये सचोप ठहरायौ है।

आपु ही सौं आपु कौ मिलाप औ' बिछोह कहा,

मोह यह मिथ्या सुख दुख सब ठायौ है॥

१६.

दिपत दिवाकर कौं दीपक दिखावै कहा,

तुम सन ज्ञान कहा जानि कहिबौ करैं।

कहै रतनाकर पै लौकिक लगाव मानि,

परम अलौकिक की थाह थहिबौ करैं॥

असत असार या पसार मैं हमारी जान,

जन भरमाये सदा ऐसैं रहिबौ करैं।

जागत और पागत अनेक परपंचनि मैं,

जैसें सपने मैं अपने कौं लहिबौ करैं॥

१७.

हा! हा! इन्हैं रोकन कौं टोक न लगावौ तुम,

बिसद-बिबेक ज्ञान गौरव-दुलारे ह्वै।

प्रेम रतनाकर कहत इमि ऊधव सौं,

थहरि करेजौ थामि परम दुखारे ह्वै॥

सीतल करत नैंकु हीतल हमारौ परि,

बिषम-बियोग-ताप-समन पुचारे ह्वै।

गोपिनि के नैन-नीर ध्यान-नलिका ह्वै धाइ,

दृगनि हमारै आइ छूटत फुहारे ह्वै॥

१८.

प्रेम-नेम निफल निवारि उर-अंतर तैं,

ब्रह्मज्ञान आनंद-निधान भरि लैहैं हम।

कहै रतनाकर सुधाकर-मुखीन-ध्यान,

आँसुनि सौ धोइ जोति जोइ जरि लैहैं हम॥

आवो एक बार धारि गोकुल-गली की धूरि,

तब इहिं नीति को प्रतीत धरि लैहैं हम।

मन सौं, करेजै सौं, स्रवन-सिर-आँखिनि सौं,

ऊधव तिहारी सीख भीख करि लैहैं हम॥

१९.

बात चलैं जिनकी उड़ात धीर धूरि भयौ,

ऊधौ मंत्र फूँकन चले हैं तिन्हैं ज्ञानी ह्वै।

कहै रतनाकर गुपाल के हिये मैं उठी,

हूक मूक भायनि की अकह कहानी ह्वै॥

गहबर कंठ ह्वै न कढ़न सँदेश पायौ,

नैन मग तौलौं आनि बैंन अगवानी ह्वै।

प्राकृत प्रभाव सौ पलट मनमानी पाइ,

पानी आज सकल सँवारयौ काज बानी ह्वै॥

२०.

ऊधव कैं चलत गुपाल उर माहिं चल,

आतुरी मची सो परै कही न कबीनि सौं।

कहै रतनाकर हियौ हूँ चलिबै कौ संग,

लाख अभिलाख लै उमहि बिकलीनि सौं॥

आनि हिचकी ह्वै गरै बीच सकस्यौई परै,

स्वेद ह्वैं रस्यौई परै रोम झंझरीनि सौं।

आनन दुवार तैं उसास ह्वै बढ़्यौई परै,

आँसू ह्वै कढ़्यौई परै नैन खिरकीनि सौं॥


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